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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

पुरुष के लिए जो 'अधिकार' नारी के लिए 'दायित्व'


राष्ट्र के नागरिक के तौर पर पुरुषों को जो सम्मान मिलता है नारियों को नहीं मिलता। मिलता तो नहीं, मगर मिलना चाहिए। यह कोई नयी बात नहीं। समता और सच्चाई के विश्वासी, शुभ बुद्धिसम्पन्न लोग लम्बे अर्से से यह बात कहते आ रहे हैं। मुट्ठी-मुट्ठी भर इतिहास उठा कर, तत्त्व-तथ्य-दर्शन बरसा कर, उन लोगों ने दिखाया है कि किसी युग में नारी की स्थिति कैसी थी, आज उसमें आया हुआ विवर्तन कहाँ खड़ा है और अब ढैया छूने में, कितनी-सी राह बच रही है।

नारियों को क्या केवल यह तीसरी दुनिया ही ठग रही है? पहले विश्व में भी सदी-दर-सदी ऐसी कोई धारणा ही नहीं थी कि नारी की मातृजाति के अलावा, एक और जाति होती है जिसका नाम इन्सान की जाति है। नारी हमेशा से नगण्य, तुच्छ के रूप में चिन्हित होती रही है, नागरिक के तौर पर नहीं। 'नागरिक' शब्द की उत्पत्ति 'नगर' से हुई है। किसी ज़माने में एक-एक नगर, एक-एक राष्ट्र था। भूमध्य सागर के किनारे फैले-बिखरे पन्द्रह सौ नगर थे जिन्हें उस ज़माने में मिस्र कहा जाता था। प्लेटो तो मज़ाक-मज़ाक में कहते भी थे-'पोखर की चारों तरफ़ मेढक जैसे'। आज से ढाई हज़ार वर्ष पहले जहाँ पहली बार गणतन्त्र का प्रारम्भ हुआ था, उस गणतन्त्र में जो लोग सरकार चलाते थे, वही गणतन्त्र में नागरिक का सम्मान पाते थे, जो सरकार चलाते थे, राजनीति का ज्ञान बिखेरते थे। उँगलियों पर गिने जान लायक चन्द गण्यमान लोग! बच्चे-कच्चे नागरिकता के अधिकार से वंचित होते थे। नारी और क्रीतदास-दासियों को भी इस अधिकार के बाहर रखा गया था।

नागरिकता, नागरिक अधिकार-ये तमाम धारणाएँ धीरे-धीरे उत्तरण की ओर बढ़ती रहीं। रोमन साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ ये धारणाएँ और भी विस्तृत होती गयीं। नागरिकता-बोध और भी गहराता रहा। साम्राज्य टिकाये रखने के लिए यह ज़रूरी भी था। नागरिक नीतिबोध गढ़ कर राष्ट्र की प्रतिरक्षा के लिए संकल्पबद्ध होगा। अपने-अपने कार्यों में, श्रम में, श्रृंखला में देश-प्रेम बोध के प्रति, अपने को उत्सर्ग कर देना ही नागरिक होने की शर्त बन गयी। साम्राज्य के सभी लोगों को नागरिकता मिल गयी। यह सिर्फ मुँह-ज़बानी बात ही नहीं रह गयी, बाकायदा इसे क़ानूनी शक्ल दे दी गयी। इसे कानून के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया। लेकिन इस रोमन साम्राज्य में भी दो जातियाँ नागरिकता से वंचित रह गयीं-नारी जाति और नीच जाति।

सोलहवीं सदी से एक पक्ष के कन्धों का दायित्व, थोड़ा-बहुत दूसरे पक्ष के कन्धों पर भी आ पड़ा। नागरिकों को पालन करने के लिए ढेर-सा दायित्व तो सौंप दिया गया, लेकिन नागरिकों के लिए क्या राष्ट्र का कोई दायित्व नहीं होता? ज़रूर होना चाहिए। राष्ट्र का दायित्व भी निर्धारित हो गया-नागरिकों के शारीरिक, पारिवारिक, वैषयिक, सुरक्षा का विधान करना।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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